Friday 13 March 2015

''बचपन क्यूँ नहीं रहा बचपन जैसा ''

बदलते परिवेश ने बच्चो के बचपन को अपने जाल में जकड़ लिया है| जब तक टीवी, मोबाईल और मायावी इंटरनेट नहीं था, तब तक ही बचपन था| तब उस जमाने में बच्चे खेल-कूद में अपना समय बिताते थे| जिससे उनका शारीरिक विकास तो होता ही था, आपस में मिल-जुल कर रहने की प्रवृति भी पुष्ट होती थी| तब खो-खो , कबड्डी, कंचा और भी अन्य लाभकारी खेल हुआ करते थे | लेकिन आज जमाना बदल गया है| आज तो चार वर्ष का बच्चा बिना मोबाईल के नही रह सकता| काफी हद तक इसमें माता-पिता का योगदान है| आजकल माता पिता दोनों कमाने बाहर जाते है| अति व्यस्तता के कारण बच्चे को मोबाईल देकर अपना पीछा छुडाना चाहते है| बच्चा पुरे दिन घर में अकेला या नौकरों के साथ रहता है और मोबाईल या कम्प्यूटर से चिपका रहता है| उसे कोई पूछने वाला नहीं होता है कि वह क्या देख रहा है, क्या कर रहा है| पुरे दिन नेट पर चैट से व् अन्य अवांछित साईट पर गतिविधि करते रहते है| ऐसे में कहाँ बचा रहता है उनका निश्छल और निर्दोष बचपन?
परिणामत: बच्चो का भविष्य भी चौपट हो जाता है बचपन तो खत्म होता ही है| क्यूँकि इन सब गतिविधियों में लिप्त रहकर बच्चे अल्पायु में ही व्यस्क हो जाते है| बच्चे देश का भविष्य होते है| आज के बच्चे ही कल देश के कर्णधार होते है| अभिभावकों को चाहिए कि वो काम के साथ-साथ समय निकाल कर बच्चो पर पूर्ण निगरानी रखे उन्हें अपना वक्त और प्यार देकर सही मार्ग पर चलने को प्रेरित करे| तो बच्चो का बचपन फिर से आ सकता है आजकल बच्चे जो भी मांग करते है अभिभावक बिना सोचे समझे तुरंत पूरी कर देते है ऐसे हालत में बच्चा जिद्दी हो जाता है और हर जायज-नाजायज मांग रखता रहता है| बच्चो के बचपन को बरकरार रखने के लिए अभिभावक को फिर से सोचना होगा जिससे कि उनका बच्चा बचपन में बच्चा ही रहे ना कि व्यस्क बने |
शान्ति पुरोहित

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